मनोज बाजपेयी की हैट्रिक : 'सत्या' और 'पिंजर' के बाद अब 'भोंसले' के लिए नेशनल अवॉर्ड

-दिनेश ठाकुर
मनोज बाजपेयी आजकल 'मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाये/ पलक बंद कर लूं, कहीं छलक ही न जाये' के आलम से गुजर रहे हैं। स्वाभाविक है। आखिर नेशनल फिल्म अवॉर्ड जीतने की हैट्रिक पूरी हुई है। 'सत्या' के भीखू म्हात्रे के किरदार के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता और 'पिंजर' के लिए विशेष ज्यूरी अवॉर्ड के बाद अब 'भोंसले' के लिए उन्होंने पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवॉर्ड जीता है। वह चार बार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी जीत चुके हैं, लेकिन प्रायोजित अवॉर्ड से नेशनल अवॉर्ड की प्रतिष्ठा कहीं ज्यादा है। आप इन्हें भारतीय ऑस्कर अवॉर्ड कह सकते हैं।
साठ साल का बुजुर्ग का किरदार
'भोंसले' के लिए मिला अवॉर्ड एक तरह से उस आम आदमी का भी सम्मान है, इस फिल्म में जिसका किरदार मनोज बाजपेयी ने अदा किया। भोंसले साठ साल का बुजुर्ग मराठी शख्स है। पुलिस कांस्टेबल के पद से रिटायर होने के बाद रात-दिन भीड़ से गुलजार रहने वाली मुम्बई में अकेलेपन से जूझ रहा है। जैसा कि निदा फाजली ने फरमाया है- 'हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी/ फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी।' भोंसले की दुनिया एक चॉल के छोटे-से कमरे में सिमट गई है। बातूनी लोगों से वह घुल-मिल नहीं पाता। पड़ोसियों ने उसे उसके हाल पर छोड़ रखा है। इसी बीच मुम्बई में बसे दूसरे प्रदेशों के लोगों के खिलाफ माहौल गरमाता है। चिंगारी भोंसले के मोहल्ले तक पहुंचती है। वह खुद मराठी है, लेकिन गैर-मराठियों के खिलाफ तनातनी उसे तनकर खड़ा कर देती है।
यह भी पढ़ें : मनोज वाजपेयी भी हुए कोरोना संक्रमित, बॉलीवुड में फिर बदल रहे हैं हालात..
आम आदमी की कहानी
निर्देशक देवाशीष माखीजा की इस फिल्म में मनोज बाजपेयी की एक्टिंग लाजवाब कर देती है। उनके संवाद बहुत कम हैं। चेहरे के हाव-भाव और चलने-फिरने के अंदाज से आखिर तक कहानी में उनकी मौजूदगी महसूस होती है। बाहर से सख्त और शुष्क नजर आने वाले बुजुर्ग के अंदर ज्वार-भाटे का क्या आलम है, यह उन्हें देखकर महसूस हो जाता है। किरदार को जीना शायद इसी को कहते हैं। फिल्म सहज और संतुलित ढंग से संवेदनाओं का सफर तय करती है। यह इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि दुनिया विकास की जितनी मंजिलें तय कर चुकी है, आम आदमी की कहानियां उनसे भी आगे तक जाती हैं। पर्दे पर आम आदमी के किरदार को धड़कनें देना मनोज बाजपेयी का खासा है। साधारण 'आउटफिट' में वह ऐसा खास कर गुजरते हैं, जो इस दौर के कई कलाकार बार-बार ड्रेस बदलकर भी नहीं कर पाते।
यह भी पढ़ें : Hansal Mehta का खुलासा: एक मूवी में विवाद होने पर मनोज बाजपेयी से नहीं की थी 6 साल बात
सिनेमाघरों में नहीं पहुंच सकी
लीक से हटकर बनने वाली 'भोंसले' जैसी फिल्मों के सिनेमाघरों में स्वागत की परम्परा अपने देश में विकसित नहीं हुई है। फिल्म कारोबारी सतही मनोरंजन वाली फिल्मों पर ज्यादा फिदा हैं। 'भोंसले' चार साल पहले तैयार हो चुकी थी। बुसान के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (2018) में प्रीमियर के बाद यह रॉटरडम, बार्सिलोना और सिंगापुर के फिल्म समारोह की भी परिक्रमा कर आई। इसे भारतीय सिनेमाघरों में नहीं उतारा जा सका। आखिरकार पिछले साल जून में एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इसका डिजिटल प्रीमियर हु्आ। कम से कम इस तरह की फिल्मों के लिए यह प्लेटफॉर्म बेहतर विकल्प साबित हो रहे हैं। नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों का प्रदर्शन सुनिश्चित करने की दिशा में सरकार की तरफ से भी पहल की दरकार है, ताकि मोर जंगल में ही नाचकर न रह जाए।
https://ift.tt/3w5qhRF
https://ift.tt/2NW48El
Post Comment
No comments